चाहती हूँ बूँद हो लूँ ,
घन घटाओं संग उडूँ या ,
झूमती पतंग हो लूँ ,
सीमाओँ को तोड़ दूँ या ,
फिर मस्त मलंग हो लूँ ,
एकरस की कारा से ,
अब जरा स्वतंत्र हो लूँ ,
तार सप्तक गा चुकी मैं ,
मध्य में तो जी रही हूँ ,
सोचती हूँ आज से, सुर ,
स्वयं ही स्वच्छंद कर लूँ ,
सुप्त इच्छाओं से मुक्त होकर ,
फिर दिव्य अनुबंध कर लूँ ।