कलयुग
जब त्रेता के स्वर्ण हिरण ने, सीता हरण करा डाला, जब सत्य की खातिर हरिश्चंद्र को, सतयुग ने बिकवा डाला, तब कलयुग की है क्या बिसात ? जो स्वर्ण मोह से बच जाए, या फिर असत्य से दूर रहे , और सत्य वचन पर टिक जाए , अब तो कलयुग की बारी है, और लोलुपता…
जब त्रेता के स्वर्ण हिरण ने, सीता हरण करा डाला, जब सत्य की खातिर हरिश्चंद्र को, सतयुग ने बिकवा डाला, तब कलयुग की है क्या बिसात ? जो स्वर्ण मोह से बच जाए, या फिर असत्य से दूर रहे , और सत्य वचन पर टिक जाए , अब तो कलयुग की बारी है, और लोलुपता…
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों
है फिक्र उन्हे मेरी कितनी, ये मुझको भी मालूम नही, लोगों से कहते फिरते हैं, क्या कहते हैं, मालूम नही| है जेब गरम उनकी कितनी, ये बतलाना होता है, मेरी जेबों के छेदों को, गिनकर जतलाना होता है| पैसों की गर्मी अहंकारवश, कब शोला बन जाती है! रावण की सोने की लंका, कब मिट्टी…
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
मेरे बाबा, जिनके गुस्से से घर में मेरी मां और सारे भाई बहन डरते थे । वो जब किसी बात
जीवन के दहकते प्यालों में, हर पीड़ा को जल जाने दो, उस राख से नवनिर्माण करो, सुख परिभाषित हो जाने दो| बाधाओं का उत्तुंग शिखर, उस पर बर्फीली आंधी को, जिसने झेला स्थिर होकर, उसमें वासित होते शंकर|
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों
चलो, बढ़ती हुई उम्र के साए में बैठकर , जीवन की तेज धूप से , कुछ फासले कर लें, चाहतों से भरे इस जीवन को , चलो, आज खाली कर लें , रोज बदलते किरदारों से , आज ,अभी ,तौबा कर लें , तुम अपनी तन्हाइयों को , रुखसत कर दो, हम अपने सन्नाटों से…
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों