क़ैद

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उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों से उतरते समय एक संन्यासी जैसी वेशभूषा वाला व्यक्ति मुझे दिखा। ना चाहते हुए भी मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, कि क्षमा कीजिएगा, क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकती हूं ? संन्यासी से दिखने वाले उसे व्यक्ति ने उड़ती हुई सी नजर मुझ पर डाली और बोला, “राजेंद्र स्वामी ।”मेरे अगले प्रश्न की प्रतीक्षा किए बगैर वह तेजी से होटल के बाहर निकल गया। न जाने उसका व्यक्तित्व कुछ पहचाना हुआ सा क्यों लग रहा था। मेरे विचार उसका पीछा कर रहे थे ।कहां देखा था मैंने उसे? स्मृतियां बिल्कुल भी साथ नहीं दे रही थी। ट्रेन में बैठने के बाद भी मैं अपने विचारों पर जोर डालती रही ,कि वह मुझे क्यों देखा हुआ सा लग रहा था। यही सोचते सोचते मैं अपने बर्थ पर लेट गई और न जाने कब नींद की आगोश में समा गई। रात के 3:00 बजे अचानक मेरी नींद खुली, प्यास के कारण गला सूख रहा था, मैंने उठकर खूब सारा पानी पिया, फिर तो नींद खुलने ही थी ।अब नींद आंखों से कोसों दूर थी ,लेकिन विस्मृतियों के बादल अब छँट चुके थे ।मन अतीत में जा चुका था।
कॉलेज की लाइब्रेरी में प्रतिदिन आकर बैठने वाला राजेंद्र और प्रीति नाम का जोड़ा ,जिसे कॉलेज के लड़के लड़कियां तोता मैना की जोड़ी के नाम से जानते थे, दुनिया के तानों से बेखबर अपनी दुनिया में खोये रहने वाले रजिन्दर और प्रीति के अलग होने की कल्पना ना उन दोनों ने कभी की होगी, ना उस कॉलेज में पढ़ने वाले और उन दोनों को जानने वाले लोगों ने।
विचारों ने फिर करवट ली, और मैंने सोचा, कि वह संन्यासी मुझे रजिन्दर जैसी चाल ढाल और चेहरे वाला क्यों लग रहा था? यदि वह रजिन्दर ही था ,तो फिर प्रीति कहां गई ? विचारों के उलझन के कारण नींद मेरी आंखों से कोसों दूर जा चुकी थी, लेकिन उसने तो अपना नाम राजेंद्र स्वामी बताया था, फिर मैं तो किसी राजेंद्र स्वामी को नहीं जानती थी, तो क्यों मेरा मन उस राजेंद्र स्वामी के व्यक्तित्व की जांच पड़ताल करने पर उतारू था ? कहीं कोई बात तो अवश्य थी ,जो मुझे अंदर से आंदोलन किए हुए थी। इन्हीं विचारों के जंगलों में भटकती मैं उठकर बैठ गई। तभी मेरी नजर नीचे की बर्थ पर सो रहे सज्जन पर पड़ी, तो मैं चौंक गई, अरे यह तो वही संन्यासी है ,जो होटल से निकलते समय मिला था। मैं उससे बात करने का अवसर ढूंढने लगी। लेकिन वह गहरी नींद में बेसुध था। एक घंटे बेसब्री से प्रतीक्षा के बाद मैंने देखा, कि वह उठ कर बैठ गया है, शायद उसका स्टेशन आने वाला था। मैं जल्दी से ऊपरी बर्थ से उतरकर नीचे वाली बर्थ पर बैठ गई, जिस पर वह भी बैठा हुआ था। मैंने बातचीत करने की गरज से पूछा,” माफ कीजिएगा, क्या मैं आपसे यह पूछ सकती हूं ?कि कॉलेज की पढ़ाई आपने कहां से की है ? उसने मुझे अजीब नजरों से देखा और कहा,” आपको यह सब क्यों जानना है ?” मैंने उत्सुकता दिखाते हुए कहा, मुझे आप पहचाने हुए से क्यों लग रहे हैं ?इस बार चौंकने की बारी उसकी थी। उसने कहा, “आपको ऐसा क्यों लग रहा है ,कि आप मुझे जानते हैं ?” मैंने फिर बिना देर किए पूछ लिया, तो क्या आप किसी प्रीति सिंह नाम की शख्सियत को जानते हैं ?आंखें फाड़ फाड़ कर मुझे घूरते हुए उसने कहा,” वैसे आपकी तारीफ ?” मैंने हंसकर कहा,” मैं एक लेखिका हूं ,और समाज की सड़ी गली परंपराओं के बोझ तले दबकर जिनका जीवन घुटकर दम तोड़ रहा है, उनके जीवन की घटनाओं को ,कहानियों के माध्यम से, लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करती हूं। अब राजेंद्र स्वामी सहज हो चुके थे। उन्होंने एक लंबी और गहरी सांस ली और बोलना शुरू किया ,तो सुनिए मेरे मां-बाप ने मेरा नाम राजेंद्र रखा था ,लेकिन कॉलेज के लोग मुझे रजिन्दर के नाम से ही जानते थे ।प्रीति मेरे जीवन का केंद्र थी ।हम दोनों ने साथ मिलकर भविष्य के सुनहरे सपने बुने थे, लेकिन प्रीति के परिवार वालों ने उसकी मर्जी के खिलाफ जबरदस्ती उसकी शादी एक पैसे वाले व्यापारी से कर दी। तर्क यह था, कि जिस लड़के के पीछे तू पागल है, वह सिर्फ तुझे खाना कपड़ा ही दे सकता है ,बिजनेसमैन से शादी करेगी ,तो रानी बनकर रहेगी ।
वह बहुत रोई चिल्लाई लेकिन उसकी एक न सुनी गई ।मुझे रोकने के लिए, मुझ पर उनकी पुत्री को बरगलाने का आरोप लगाकर ,पुलिस केस कर दिया गया ।उसकी शादी वाले दिन मैं वहां पहुंच ना जाऊं, इसके बंदोबस्त में उन लोगों ने पुलिस वालों को पैसे खिलाकर मुझे रात भर के लिए जेल में डलवा दिया। और अपनी बेटी को जबरदस्ती एक ऐसे व्यक्ति के साथ शादी के बंधन में बांध दिया ,जिसे वह जानती तक नहीं थी। फिर थोड़ा रुक कर राजेंद्र ने बोलना शुरू किया, प्रीति अगर अपने वैवाहिक जीवन से खुश रहती, तो मैं इस समाज को माफ कर सकता था । लेकिन वह खुश नहीं है, बस जीवन को ढो रही है। अपने ऊपर थोपे गए ,रीति-रिवाज को किसी तरह निभा रही है। मुझे अपने लिए नहीं, उसके लिए बहुत दुख होता है, कि आजाद देश में रहकर भी, लोग अपने जीवन में क्या पढ़ना है? क्या बनना है? किसके साथ रहना है? जैसे महत्वपूर्ण चुनाव स्वयं क्यों नहीं कर पाते हैं?
बच्चे माता-पिता के माध्यम से इस संसार में आते हैं, इसका मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं होता, कि उन्हें माता-पिता अपनी जागीर मान ले ?वे उन्हें पढ़ाएं लिखाएं ,जीवन दृष्टि विकसित करें ,लेकिन उन्हें चुनाव का हक भी तो दें । क्योंकि पीढ़ियों से अपनी मर्जी थोपने की परंपरा चली आ रही है, उन्हें खुलकर जीने की आजादी नहीं मिली, इसलिए लोग परंपरा के नाम पर अपना बदला अपने बच्चों पर निकल रहे हैं। यह ठीक नहीं है ।मैंने बातों का रुख मोड़ते हुए कहा ,आपको कैसे पता, कि प्रीति खुश नहीं है ? तब राजेंद्र ने कहा, छोड़िए जाने दीजिए, इस बात को, जिस समस्या का समाधान ही ना हो, तो उसे वैसे ही स्वीकार कर लेना, नियति बन जाती है ।मैंने कहा ,यह तो जीवन से हार मानने जैसी बात हो गई ।यदि हम लोग अपने-अपने जीवन के युद्ध स्वयं ही हार गए, तो देश और समाज की दिशा और दशा बदलने की जिम्मेदारी कौन लेगा ?राजेंद्र मेरे तर्कों के आगे समर्पण करता हुआ बोला,” एक बार मिली थी, वो मुझे। तब मेरे साथ उसने एक घंटा बैठ कर बातें की थी। उस दिन भी उसकी आंखें डबडबा गई थी, मुझे विदा होते समय ।उसकी डबडबाई आंखें आज भी मेरा पीछा कर रही है। मैंने व्यग्रता से पूछा, प्रीति से आपकी क्या बात हुई ?राजेंद्र ने कहा,” कि उसका पति शराबी और अय्याश किस्म का है ।लोगों के सामने अपने पैसों का प्रदर्शन पत्नी को बेश कीमती गहनों से लाद कर एक शोपीस की तरह करता है ।भावनाओं से उसका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। प्रेम शून्य जीवन में महंगे जेवर और ब्रांडेड कपड़ों से सजी-धजी प्रीति एक यांत्रिक जीवन जी रही है, जाते-जाते मुझसे कह गई, कि समझ नहीं आता, कि जी क्यों रही हूं ?और मरूं भी तो किसके लिए ? क्योंकि, मैं मरूंगी तो एक दूसरी प्रीति को ,इस यांत्रिक जीवन में घसीट कर ,फिर से लाया जाएगा। मैं एक और जीवन बर्बाद करने का श्रेय, अपने ऊपर नहीं लेना चाहती हूं ।तुम शादी मत करना, अपना जीवन अपनी मर्जी से जीना। प्रेम रहित वैवाहिक जीवन एक कैद है, जिसमें जीते जी मुक्ति संभव ही नहीं। इतना कहकर वह चली गई ।
अब राजेंद्र स्वामी भी चुप हो गए थे ।स्टेशन आ चुका था। ट्रेन के पहिए थम चुके थे। राजेंद्र स्वामी चुपचाप उठकर ट्रेन से उतर गए ।ट्रेन ने फिर से धीरे-धीरे सरकाना शुरू कर दिया था ,और मैं अपने मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न लिए खिड़की के बाहर देखने लगी थी ।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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