हिंदी भाषा की व्यथा

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मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है। लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था, मैंने जीवन का बेहद सुनहरा दौर भी देखा है ।मैंने महादेवी वर्मा ,जयशंकर प्रसाद और निराला जैसे महान छायावादी कवियों का दौर भी देखा है ।

वो मेरी खुशनुमा तरुणाई का दौर था, बहुत याद आती है, उस वक्त की रौनके।  मानवीय संवेदनाओं ,सामाजिक विसंगतियों तथा मधुर कषाय अनुभूतियों को कलमबद्ध करते कवि और लेखकों का ,वह दौर अब सिर्फ मेरी स्मृतियों के कोषागार की शोभा बढ़ाता है।

मैंने सुना है, कि प्रार्थनाएं काम करती हैं ,तो चलो ना, सभी भारतवासी मिलकर उसी सुनहरे भाषाई दौर की वापसी के भागीरथी प्रयास करें।

मेरी यह व्यथा यदि जनमानस की सुप्त संवेदनाओं को जागृत कर पाए,  तो यही मेरा अहिल्या सदृश उद्धार होगा।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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