वकील साहब के घर की सबसे बड़ी बिटिया,जिन्हें मैं जिज्जी कहकर बुलाया करती थी, घर के हर काम में हुनरमंद, चाहे वो सिलाई ,कढ़ाई, बुनाई हो या स्वादिष्ट भोजन बनाने की कला ,हर काम में जिज्जी को महारत हासिल थी। देखने में सुन्दर, काम में सुघड़ पढ़ाई में भी अव्वल रहने वाली जिज्जी मेरे घर के ऊपरी तल पर रहती थी।
मैं उनसे उम्र में बहुत छोटी थी, फिर भी जब भी मैं विद्यालय से घर आती , तो खाना खाने के बाद दौड़ लगाकर उनके पास चली जाती,उस समय वो कोई पत्रिका या उपन्यास पढ़ती रहती धी मुझे सामने देख कर बोलती ,’आ गई खबरीलाल ,आओ बैठो।
मुझे कहानियाँ सुनने का खूब शौक हुआ करता था, मैं हमेशा पढ़ी गई कहानियों को सुनाने का आग्रह उनसे किया करती थी। कभी फुरसत में हो,तो सुना भी देती थी। एक बार उन्होंने मुझसे कहा, कि कहानियों की दुनिया एक काल्पनिक दुनिया होती है,जीवन की सच्चाई से अलग होती है।मैने उनसे कहा कि समाज में जो घटता है ,लेखक को लिखने की प्रेरणा तो उसी से मिलती होगी। जिज्जी ने लापरवाही से कहा ,ह्म्म पता नही ,भगवान जाने !
मैं सातवीं कक्षा में पढ़ती थी, जब उनका ब्याह कर दिया गया। क्योंकि चार दिनों के बाद पग फेरे के लिए मायके आना था, इसलिए मुझे भी उनके साथ भेज दिया गया, शायद ये सोच कर कि नए घर में जिज्जी को कुछ मानसिक संबल मिल जाए।
पहला दिन तो रिश्तेदारो की भीड़ भाड़ में कुछ समझ ही नही आ रहा था, कि क्या करना है ,कहाँ बैठना है? बस किसी तरह पहला दिन बीता।
दूसरे दिन जब सारे रिश्तेदार विदा हो गए और केवल जिज्जी के ससुराल वाले ही घर में शेष रह गए, तब गहने कपड़ो का विश्लेषण आरम्भ हुआ।
सासु मां ने बोलना शुरु किया, ये दो कौड़ी का सामान देकर विदा किया है ,अपनी बेटी को , तेरे मायके वालो ने ? गहने भी इतने हल्के ? नाम बड़े और दर्शन थोड़े !इस टीका टिप्पणी के साथ ही जिज्जी के जीवन में राहुकाल का प्रकोप प्रारंभ हो गया।
जिज्जी के ससुराल मे सास, ससुर, चार ननदें और दो देवर थे। जीजाजी घर के सबसे बड़े लड़के थे ,जो ईटानगर में सरकारी नौकरी मे कार्यरत थे।
चार दिनों के बाद जिज्जी मायके आ गई और जीजाजी एक हफ्ते बाद अपनी नौकरी पर वापस चले गए । उनके वापस जाते ही जिज्जी को ससुराल बुला लिया गया। ससुराल पहुंचते ही घर का सारा काम उनके सिर पर लाद दिया गया। चार बजे भोर से लेकर रात के दस बजे तक काम खत्म होता ,उसके बाद सासु मां की दिन भर के काम को लेकर आलोचना शुरु हो जाती , ‘आजकल की बहुओं से तो कोई काम ठीक से नही होता ,हम तो सोलह साल में ब्याह के आए थे ,तब भी इतनी बड़ी गृहस्थी सम्भाल लिए। अपनी प्रशंसा के पुल ऐसे बांधती जैसे कोई नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर लिया हो।
जिज्जी के रूप में ससुराल वालो को मानो मुफ्त की नौकरानी ही मिल गई थी ,जिस का काम था,मुंह बंद करके पूरे घर की फर्माइशों पर खरा उतरना । उनका रोज का नियम था ,चार बजे भोर में उठकर पीतल के चार पांच घड़े को मांज कर उसमें घर भर के लिए पानी भरना, क्योंकि सुबह दो घण्टे ही नल से पानी आता था ।इसके बाद चाहे कितनी भी ठंड हो ,उसी समय स्नान भी आवश्यक होता था,क्योंकि घर की बहू बिना नहाए चूल्हा नही जला सकती ,बाकि घर के सदस्य चाहे न नहाए, तब भी कोई बात नही।
सुबह इतना सब कुछ निपटाने तथा पूजा करने के बाद छः बजे से चाय नाश्ता बनाने का दौर शुरु होता ,क्योंकि सास ससुर तो छः बजे सुबह उठ जाते और चारो ननदों,दोनो देवरो का आठ बजे तक टिफिन भी तैयार कर के देना होता था । ये सभी अलग अलग विद्यालयो एवं विश्वविद्यालयों में अपनी अपनी पढ़ाई कर रहे थे। सुबह दस बजे ससुर जी भी अपने विद्यालय चले जाते थे,जो प्रधानाचार्य थे।
सबके जाने के बाद जिज्जी राहत की सांस लेकर अपना चाय नाश्ता लेकर बैठती , तभी सासु मां के नहाने का समय हो जाता और जिज्जी जैसे ही चाय का पहला घूंट पीने के लिए कप को हाथ मे लेती, सासु मां की चिल्लाती हुई आवाज आती, ‘अरे !सो गई क्या ? नहाने के लिए कुएं से पानी कौन निकालेगा री ?
उनके घर के आंगन में एक कुआं था ,जिस का प्रयोग नहाने और कपड़े धोने के लिए किया जाता था।
चाय का कप वैसे ही छोड़कर वो सासु मां के लिए कुएं से पानी निकालने चली जाती ,जब तक लौटती उनकी चाय भी ठंडी हो चुकी होती , खिन्न मन से ठंडी ही चाय गले के नीचे उतार कर ,दोपहर के खाने की तैयारी मे जुट जाती,क्योंकि तीन बजे तक घर के सारे लोग वापस आ जाते थे, तो पूरे घर का खाना बनाना होता था।
ये वो दौर था, जब टेलीफोन भी सामान्यतया घरों मे नही हुआ करते थे। चिठ्ठी या पत्र ही सहारा होते थे । जीजाजी ईटानगर गए तो भूल ही गए, कि उन्होंने ब्याह भी किया है, कोई पीछे छूट गया है,जिसे साथ लाना था।जिज्जी बड़े धैर्य के साथ उनकी प्रतीक्षा करती रही ,कि शायद साल बीतते बीतते पतिदेव उन्हे अपने साथ नौकरी पर ले जाए , क्योंकि सासु मां ने उनको यही बताया था, कि सालभर यहां रहकर घर के रीति-रिवाज व्रत-उपवास सीखो , तब जाना मेरे बेटे के साथ नौकरी पर।
साल बीतते बीतते जिज्जी का धैर्य जवाब देने लगा, तो उन्होंने एक पत्र अपनै पतिदेव को लिखा, कि आप कबतक घर आएगें, मुझे आप के साथ रहने का सुख कब मिलेगा ?
पत्र तो लिख लिया लेकिन पत्र को पोस्ट बाक्स मे डाले कौन ? क्योंकि जिज्जी का तो घर के बाहर जाना पूर्णतः निषिद्ध था। दूसरे दिन जब सारे लोग अपने अपने विद्यालय और विश्वविद्यालय चले गए और सासु मां नहाने मे व्यस्त हो गई ,तो जिज्जी खिड़की के पास जाकर गली मे खेल रहे एक छोटे बच्चे को बुलाकर बोली,कि भइया इस पत्र को पोस्ट बाक्स मे डाल कर आ जाओगे क्या ? भगवान तुम्हारा भला करें ।बच्चे ने जिज्जी के हाथ से पत्र लिया और खेलता कूदता जाकर पत्र पोस्ट बाक्स मे डाल आया,जो गली के मोड़ पर ही था। लगभग बीस दिनों बाद जीजाजी का प्रत्युत्तर आया,जिसमें उन्होंने जिज्जी को फटकार लगाते हुए, अपनी मां को सम्बोधित किया था,जो इसप्रकार था-
आदरणीय माताजी,
प्रणाम
आप के बहू की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि वो मुझे पत्र लिखकर ये मांग करे कि उसे मेरे साथ नौकरी पर रहना है।अपनी बहू को ये समझा दीजिए, कि अपनी हद मे रहे,आप लोगों की सेवा करे और यहां मेरे पास आने की जुर्रत भी न करे।आखिर आपलोगों के लिए भी उनका कोई कर्तव्य है या नही ? मुझे जब अवकाश मिलेगा,तो आ जाऊंगा। पत्र भेज कर मुझ पर अनावश्यक दबाव न बनाया जाए।
आप का आज्ञाकारी पुत्र
इस पत्र के मिलने के बाद तो पूरे घर में भूचाल ही आ गया। ससुर जी तो धृतराष्ट्र के साक्षात अवतार थे,और सासु मां न जाने कितने जन्मों का बदला लेने के लिए हरदम कमर कसे रहती थी। पत्र को हाथों में नचा नचाकर चिल्ला रही थी ,अरी कुलच्छनी ये सिखाया है,तेरी मां ने?प्रेम पत्र भेजते शर्म न आई ? कैसी बेशरम औलाद पैदा करी तेरी मां ने ? मैं तैने दुःख दे रही हूं ? मेरे बेटे को शिकायत लिखकर भेज रही है ? दिन भर पड़ी पड़ी चार लोगों का अनाज अकेले खाती है और जिस थाली में खाती है ,उसी में छेद करती है !
खूब छाती पीट पीट कर जिज्जी के सात पुश्तों तक को विशेषणों से नवाजती जा रही थी। तभी उनके दोनों देवर जो लगभग जिज्जी के ही हमउम्र थे ,उन्होंने दोनों हाथों से पकड़कर जिज्जी को उठाया और उनके कमरे में ले जाकर बंद कर दिया और बोला, कि चार दिन जब खाना पानी नहीं मिलेगा तो दिमाग ठिकाने लग जाएगा। अम्मा तुम शान्त हो जाओ।अपमान और दुःख के कारण जिज्जी बुरी तरह से टूट गई थी।
चौथे दिन जब दरवाजा खोला गया, तो उन्हें तेज बुखार था ,भूख प्यास के कारण चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था ,ससुराल वाले घबरा गए ,कि कहीं मर गई, तो जेल की हवा ना खानी पड़ जाए, तो जल्दी से जिज्जी के मायके तार भेजा गया ।जिस पर लिखा था, “जल्दी आओ “तार मिलते ही मां का तो रो रो कर बुरा हाल हो गया ,क्योंकि उस समय तार का मतलब ही होता था ,कोई आपातकाल के लिए भेजा गया संदेश ।पिताजी जी तुरन्त जिज्जी के ससुराल रवाना हो गए जब वहां पहुंचे तो जिज्जी की हालत देखकर घबरा गए, सासू मां से पूछा की क्या हुआ ,मेरी बेटी को? तो सासू जी ने हाथ नचाकर कहा हमसे क्या पूछते हैं ?अपनी कुलच्छनी बेटी से पूछिए, कि इसने क्या गुल खिलाया है ?इसे फौरन अपने साथ ले जाइए, वरना यह पूरे घर को जेल भिजवाकर मानेगी ।जिज्जी को लेकर पिताजी वापस लौटे ,तो रास्ते भर पिताजी पूछते रहे ,कि क्या बात है ?मुझे बताओ, लेकिन जिज्जी सिर्फ सिसकती रही ,कुछ बोल न पाई । पिताजी के घर पहुंचते ही, मां की व्याकुलता रुलाई बनकर फूट पड़ी ,सब ठीक है ना? क्या हुआ था ?ऐसे न जाने कितने प्रश्नों की झड़ी लगा दी ,लेकिन ना तो पिताजी कुछ बोल रहे थे, ना जिज्जी। उनको तो वैसे भी तेज बुखार था ,मां तुरंत रिक्शा करके डॉक्टर के क्लीनिक पर पहुंची और जिज्जी का हाल बता कर उन्हें देखने के लिए घर चलने का निवेदन किया। डॉक्टर साहब पिताजी के अच्छे मित्र थे ,बोले कि आप फिलहाल यह दवा उन्हें दे दीजिएगा ,मैं कल सुबह आपके घर आकर देख लूंगा। एक हफ्ता बीतते बीतते जिज्जी की तबीयत सुधरने लगी ।लेकिन जब उनके वापस जाने की बात उनसे पूछी जाती ,तो वह टाल जाती। वे इस बारे में बात नहीं करना चाहती थी। पिताजी को समझ में आ चुका था ,कि ससुराल में सब कुछ ठीक तो नहीं है, इसलिए वह इस बारे में कोई बात ना करते थे, लेकिन मां को तो मोहल्ले में लोगों के कौतूहल को भी शांत करना होता था, इसलिए वह चाहती थी ,कि जिज्जी ससुराल चली जाए, क्योंकि उन्हें जिज्जी की मनोदशा का ठीक-ठाक अंदाजा भी ना था। दो चार माह बीतते बीतते जिज्जी के ससुराल से उनके छोटे देवर उन्हें वापस ले जाने के लिए आ गए ,मां तो उन्हें देखकर खुश हो गई की चलो ससुराल वालों ने स्वयं ही बुलवाया है ,तो अब तो बिटिया को वापस जाना चाहिए। लेकिन जिज्जी का चेहरा पीला पड़ गया ।ससुराल के बुरे अनुभवों ने उनको बुरी तरह से तोड़ दिया था। उन्होंने थोड़ी हिम्मत जुटाई और पिताजी से जाकर बोली, कि मैं कुछ समय तक और यहां रहना चाहती हूं। तो पिताजी ने उनके देवर को यह कहकर लौटा दिया, कि अभी आप जाइए ,कुछ दिनों बाद मैं स्वयं उसे लेकर आपके घर आ जाऊंगा। देवर लौट गए, फिर उन लोगों ने जीजा जी को पत्र लिखकर न जाने क्या भड़काया, कि वह गुस्से में एक हफ्ते का अवकाश लेकर अपने घर पहुंचे, जब पिताजी को जीजा जी के घर आने की खबर दी गई, तो पिताजी जिज्जी को लेकर तुरंत उनके ससुराल पहुंच गए ।लेकिन यहां तो कुछ और ही चक्रव्यूह रचा जा चुका था। पिताजी ने दामाद जी से कहा,” कि अब तो लगभग 2 साल होने वाला है ,अपनी धर्मपत्नी को साथ ले जाइए ,यह उसका कानूनी अधिकार भी है।” जीजा जी ने विद्रूप हंसी-हंसकर कहा,” देखिए हमें कानून मत सिखाइए, यह मेरे घर का मामला है, हमें क्या करना है, यह हम देख लेंगे ,कृपा करके आप अपनी बेटी को यहां छोड़िए और अपने घर का रास्ता नापिए ।पिताजी अपमान का घूंट पीकर घर लौट आए। एक हफ्ते जिज्जी के साथ रहकर, जीजा जी फिर उन्हें ससुराल में ही छोड़कर, अकेले ही नौकरी पर वापस चले गए। जिज्जी की साथ जाने की सारी तैयारी धरी रह गई, साथ ही वह अवसाद में भी चली गई। दिन महीने साल निकलते चले गए ।देखते देखते सात साल बीत गए ,इस बीच जिज्जी के सारे देवर ननदों की भी शादियां हो गई। सभी अपनी-अपनी दुनिया में रम गए ,लेकिन जिज्जी की दुनिया वैसी ही उजाड़ रही ,वह जब भी मायके आती,जाने का नाम ही ना लेती ।लेकिन जब दो-चार महीने बीतते, फिर जीजा जी झांसा देने के लिए वापस आते और हफ्ते दस दिन साथ रहकर उन्हें झूठे सपने दिखाते, कि इस बार तो नहीं, अगली बार आऊंगा तो अवश्य ही साथ ले चलूंगा। और भोली जिज्जी, उनकी झूठी बातों पर विश्वास करके एक उम्मीद में अपना समय बिताती चली जाती थी। समय का चक्र घूमता रहा और जिज्जी के सास ससुर भी संसार से विदा हो लिए। तब तक 14 वर्ष बीत चुके थे, अब तो घर में कोई बचा ही ना था, जिसकी सेवा का बहाना करके जीजा जी जिज्जी को छोड़ते,तो वह समय भी आ गया, जब जिज्जी के दिन फिरने वाले थे। आखिर 14 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद उन्हें उनके पति परमेश्वर साथ ले जाने वाले थे। जिज्जी मन में अपने घर के सपने संजोती तैयारी लगी हुई थी ,चौदह वर्षों की मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना झेलते झेलते उनका स्वास्थ्य भी बहुत शोचनीय हो चुका था। उनके पूरे शरीर में जोड़ों के दर्द ने अपना अड्डा जमा लिया था ,लेकिन वर्षों बाद ऐसी जगह जाने की खुशी जिसे वह अपना घर कह सकती थी ,जिसे अपनी इच्छा के अनुसार सजा सकती थी , इसी सोच में बावली हुई जाती थी ।
खचाक् की आवाज के साथ टैक्सी घर के दरवाजे पर रुकी ।तब जिज्जी का ध्यान भंग हुआ ,उनका सपनों का घर आ चुका था, बड़े उमंग के साथ वह घर के अंदर पहुंची ,तो देखा पूरा घर अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ था। मानो थोड़ी देर पहले ही भूचाल आया हो ,लेकिन मन खुश हो तो कितनी भी बड़ी अड़चन आपको परेशान नहीं कर सकती ।यही सत्य जिज्जी के साथ भी काम कर रहा था। जीजा जी घर आते ही नहा कर घर के जरूरी सामान लाने का कहकर निकल गए। जिज्जी पूरे घर की साफ सफाई करती ,चीजों को समेटती और घर को संवारती जाती थी। सफर की थकान और भूख को भूल ही गई थी। शाम को जीजा जी घर लौटे, तब जिज्जी ने खाना बनाया, खाने के लिए थाली लगाने लगी तो जीजा जी ने कहा, कि मैं तो बाहर से खा कर आया हूं ,तुम खा लो। जिज्जी को यह बात कुछ अजीब लगी ,पर वह कुछ बोली नहीं और चुपचाप खाना खा लिया जीजा जी रोज सुबह सात बजे ऑफिस के लिए निकल जाते और शाम 4:00 बजे तक घर लौटते। खाना खाकर एक-दो घंटा आराम करते और फिर शाम के सात बजे टहलने के लिए, घर से बाहर निकल जाते थे, फिर लगभग रात के दस बजे घर में वापस आते थे। ज्यादातर वो बाहर से खाना खाकर ही लौटते थे। जिज्जी बोलती,कि पहले बता दिया करिए ,तो खाना कम बनाया करुं। तब जीजा जी बड़े अनमने भाव से जवाब देते, कि अरे वह एक मित्र मिल गया था ,जबरदस्ती अपने घर ले गया और मेरे मना करने के बावजूद खाना खिला दिया ,इतने सालों से अकेला रहता था, तो मित्र लोग शाम को अपने घर ही खाना खिला दिया करते थे। मैं भी भूल जाता हूं, कि तुम अब आ चुकी हो, खाना घर पर भी बना होगा। खैर !कोई बात नहीं, मैं अपनी बाहर खाने की आदत कम कर लूंगा। साल बीतते बीतते घर में पुत्र रत्न की किलकारियां गूंजने लगी ,जिज्जी अपने कमजोर स्वास्थ्य और जोड़ों के दर्द के साथ घर और पुत्र की देखभाल पूरी तन्मयता से करती रही ।जीजा जी जो कहते हैं, उसी को सच मान लेना ,उनकी नियति बन चुकी थी। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था।
फिर एक दिन अचानक हृदयाघात से जीजा जी चल बसे ।वर्षों की अथक प्रतीक्षा के बाद जो जीवन पटरी पर आने लगा था ,उसके सामने फिर एक प्रश्नचिन्ह मुंह बाये खड़ा था। जीजाजी के आफिस के लोग इकट्ठा हुए और जिज्जी को सांत्वना दी ,कि जीजा जी की जगह जिज्जी को प्रतिनियुक्ति मिल जाएगी ,रोजी-रोटी का संकट तो नहीं रहेगा, लेकिन ब्याह के बाद से जिस अकेलेपन ने उनका चौदह वर्षों तक साथ निभाया था, अब वह दोबारा उनका साथ निभाने आ चुका था। जीजा जी के स्वर्गवासी होने के बाद आसपास रहने वाले कुछ परिवारों की महिलाएं, अब अक्सर फुर्सत में जिज्जी के पास आकर बैठती, तब बातों बातों में जीजा जी के झूठ बोलने की आदतों का खुलासा होता जाता था। उनके जीवन के अनेक रहस्यों पर से पर्दा एक-एक करके उठता जा रहा था ।जिसे जिज्जी बिल्कुल विरक्त भाव से सुनती और कहती की सभी जीव इसी धरती पर अपने-अपने स्वर्ग और अपने-अपने नर्क भुगत कर ही इस दुनिया से विदा होते हैं।