शांता ताई

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vandana-raiशांता ताई  उम्र के उस पड़ाव पर थी, जब व्यक्ति अपने गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियां पूर्ण कर अपने जीवन के फुर्सत के क्षणों से उपजे खालीपन को अपनों के सानिध्य से और भगवत भजन से भर लेना चाहता है| लेकिन रिक्तता कि अनुभूतियों से रिक्त हो पाना, उच्च कोटि का अध्यात्म होता है| जिसे पाना, सामान्य गृहस्थ जन के लिए लगभग असंभव ही होता है| गुजरते हुए उम्र के साथ वैसे तो लालसाओं की अग्नि को मंद होना चाहिए, लेकिन सामान्य रूप से मैंने लालसाओं की अग्नि को अधिक प्रदीप्त होते देखा है| जो व्यक्ति के समस्त पीड़ाओं का कारण बन जाता है| यदि व्यक्ति सुख दुख से निर्लिप्त होने की कला को अंगीकार कर ले, तो दुख उसे छू भी नहीं सकता, लेकिन ऐसी सिद्धियां प्राप्त करने के लिए निरंतर स्वयं के विचारों का प्रबंधन करना अनिवार्य शर्त है| जिसमें धैर्य की आहुति डालनी पड़ती है|

भारतीय संस्कृति ने तो मानवीय प्रकृति के अनुसार ही जीवन को चार भागों में विभक्त किया है, प्रथमत: ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ज्ञान प्राप्ति, तत्पश्चात जीवन में कर्तव्यों का पालन करते हुए भौतिक लालसाओं की तृप्ति तथा क्रमशः लालसाओं कि तृप्ति होने पर इच्छाओं को सीमित करना और अंततः सांसारिकता से निर्लिप्त होकर साक्षी भाव से दृष्टा बन जाना|

यह सभी सोपान जीवन को गति प्रदान कर शांति से भर देते हैं लेकिन अधिकांश लोग जीवन पर्यंत अपनी लालसाओं से ही चिपके रहकर दुख और अवसान को प्राप्त करते हैं| शांता ताई की लालसाएं अभी तक युवा काल की तीव्रता को मंद नहीं कर पाई थी| और यही उनके दुख का मूल कारण था| घर में बहू बेटे और उनके बच्चों में अपना सुख तलाशती शांता ताई से जब भी मैं फुर्सत के क्षणों में मिलने जाती तो उनकी आंखें आंसुओं से भरी हुई मिलती थी, कभी बहू ने ताने मारे, कभी बेटे ने दुर्व्यवहार किया, और कभी पोतों ने बात नहीं की| इसी बात का दुख लिए वह हमेशा मुझे रोती हुई मिलती थी| उन्हें कई बार मैंने समझाने की कोशिश की, कि ताई आपके पास पैसे की कोई कमी नहीं, हाथ पैर भी सही सलामत है, अच्छा खासा बैंक बैलेंस है, आप तीर्थयात्रा पर निकल जाया करिए| हर समय पास रहने से रिश्तो की मिठास कम होने लगती है| साल में  कुछ दिनों के लिए घूमने निकल जाया कीजिए|  इससे आपका मन परिवर्तन भी हो जाएगा, और बेटे बहू को भी थोड़े दिन अपनी मर्जी से जीने का स्वाद भी मिल जाएगा| लेकिन ताई का तो अपने पोतों  के बिना कहीं मन ही नहीं लगता था | बहू की तानों और बेटे के दुर्व्यवहार की तो वह अभ्यस्त ही हो चुकी थी | लेकिन उनके पोते भी जब अपनी फरमाइशे ताई से पूर्ण होता ना पाते, तब उनसे बात करना बंद कर देते थे, जिससे कि वह फिर से रोना शुरू कर देती थी| एक बार ताई को किसी करीबी रिश्तेदार की शादी में जाने का निमंत्रण पत्र मिला| उसके साथ एक आग्रह पूर्ण पत्र भी भेजा गया था, जिसमें बड़े आदर और आत्मीयता के साथ ताई को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था| उत्साहित ताई ने बड़ी खुशी खुशी जाने की तैयारी कर ली, लेकिन कोलकाता जैसे महानगर में अकेले जाना उनके वश की बात न थी| उन्होंने बड़े प्यार से अपने बड़े पोते से कहा, कि बेटा तुम मेरे साथ चलोगे क्या? मेरा बड़ा मन है, इस विवाह उत्सव में जाने का, इस पर उनका बड़ा पोता, जो कॉलेज में पढ़ता था, बड़ी रुखाई से बोला, मेरी पढ़ाई का नुकसान होगा, आप किसी और के साथ चली जाइए, फिर ताई ने डरते डरते अपने बेटे से कहा, कि मुझे कोलकाता जाना है, तुम साथ चलोगे क्या? तो बेटे ने जवाब दिया- मैं टिकट करवा कर ट्रेन में बैठा दूंगा, चली जाना, कोलकाता पहुंचकर रिश्तेदारों को फोन कर देना, स्टेशन आकर तुम्हें ले जाएंगे| मेरे पास फुर्सत नहीं है, तुम्हारे फालतू के कामों के लिए, मैं साथ नहीं जा पाऊंगा| वैसे भी तुम कोई 16 बरस की लड़की थोड़े ही हो, कि तुम्हें सुरक्षा की जरूरत है| कोई तुम्हें उठाकर नहीं ले जाएगा, जो तुम्हें ले जाएगा, वह भी तुम्हारी बड़-बड़ से परेशान होकर वापस मेरे सिर पर ही पटक जाएगा| बेटे के इस रूखे से उत्तर ने ताई को निरुत्तर कर दिया था | और फिर कोलकाता जाने का दिन भी आ गया | बेटे ने रिक्शा मंगवाया, उसमें ताई को भी उनके सामान के साथ लाद दिया गया, और रिक्शे वाले को हिदायत दे दी गई कि ताई को स्टेशन के प्लेटफार्म तक छोड़ आए| जिस ताई ने ताऊ के जीवित रहते कभी अकेले अपने शहर में भी भ्रमण नहीं किया था, वह ताऊ के न रहने पर, बेटे और पोतों के राज में अकेले ही कोलकाता जैसे महानगर की भीड़ में जाने को ना जाने क्यों तैयार भी हो गई| स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहुंच कर भी ताई घबराई हुई इधर-उधर सबको अपना टिकट दिखा कर पूछती रहीं  कि यह वाली ट्रेन आ गई क्या? स्टेशन की भीड़ और गहमागहमी में घिरकर घबराई हुई ताई फिर से रोने लगी, तभी किसी कुली की नजर उन पर पड़ी तो उन्हें रोता देखकर उनके पास आया और बोला अम्मा काहे को रोती है? क्या दिक्कत है? तब ताई ने उसे बताया, कि कोलकाता जाना है, लेकिन पता नहीं कौन सी ट्रेन में बैठना है, कुली को उन  पर दया आ गई| उसने उन्हें सांत्वना देकर कहा – अम्मा घबराओ मत, मैं आपको ट्रेन में बैठा देता हूं, यह जो सामने ट्रेन खड़ी है, वही आपको कोलकाता पहुंचाएगी| वह दयालु कुली जो समय ताई के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं था, उसने ताई को ट्रेन में उनकी सीट तक पहुंचा दिया, ताई उसको खूब आशीष देती हुई पैसे देने लगी तो उसने यह कहते हुए पैसे लेने से इंकार कर दिया कि- सफर लंबा है, इन पैसों से आप कुछ खा लीजिएगा, मैं तो दूसरे मुसाफिरों से कमा लूंगा | आप को अकेला परेशान देखकर मुझे आपसे पैसा लेना सही नहीं लग रहा | ताई ने बहुत कहा कि पैसे उनके पास हैं, वह अपनी मजदूरी ले ले, तब कुली ने उनसे पैसे लेकर उसके फल खरीदे और ताई को देकर चला गया| यह देखकर ताई फिर रोने लगी, वह सोचने लगी कि जिन बच्चों में उनकी जान अटकी रहती है, उन्हें तो मेरी जरा सी भी परवाह नहीं और एक अनजान गरीब कुली ने उनकी कितनी परवाह की| ट्रेन चल पड़ी, इसके साथ ही ताई के विचारों और स्मृतियों का बवंडर भी शोर मचाने लगा | पुरानी यादों में गोता लगाती ताई सोच रही थी कि एक वह समय था जब उनकी एक आवाज पर पूरा घर अनुशासित हो जाता था और आज उसी घर में वह हारी हुई बाजी के समान मूल्य विहीन है| घर के मालिक यानी ताऊ को भी अपने इशारों पर नचाने वाली ताई, अपने बड़े प्यार से बनाए गए घर  में अतिरिक्त सामान जैसी पड़ी रहती हैं, समय से भोजन पानी उन तक पहुंचा दिया जाता था | मानो यह भी उन पर कोई एहसान ही किया जा रहा हो, गहरी श्वास खींचकर ताई ने पानी का एक घूंट पिया  और फिर पुरानी यादों में खो गई| किसी बात पर यदि ताई नाराज हो जाती थी, तो ताऊ उन्हे मनाने के लिए लाख जतन करते, वह ताई को जितना मनाने की कोशिश करते, ताई उतने ही नखरे दिखाती, लेकिन अंत में ताऊ के  निश्छल प्रेम के समक्ष आत्मसमर्पण कर ही देती थी और अब यह हाल है, कि उन्हें क्या अच्छा लग रहा है, क्या बुरा लग रहा है, यह देखने की फुर्सत किसे है भला? समय कब करवट लेता है, यह चोट लगने पर पता चलता है| विधि का यही विधान है, ताई ने स्वयं से प्रश्न किया, तो क्या दीर्घायु होना ही मनुष्य का सबसे बड़ा अपराध है? जो उसे अपमानित जीवन जीने के लिए विवश करता है| जीवन में जो बदलाव बड़ी-बड़ी बातों से नहीं आ पाता, वह बदलाव कभी-कभी छोटी सी घटना के कारण आ जाता है| ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि बेटे के बर्ताव ने ताई को सांसारिकता  के माया जाल से मुक्त कर दिया था| जैसे-जैसे ट्रेन अपने निर्धारित गंतव्य की ओर बढ़ती जा रही थी, वैसे वैसे ताई का वैराग्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच रहा था|

ताई को गए काफी दिन बीत चुके थे| ताई के बेटे को 1 दिन कोलकाता वाले रिश्तेदार का पत्र मिला, जिसमें ताई के विवाह उत्सव में शामिल ना होने का उलाहना दिया गया था| अब तो होश उड़ने की बारी ताई के बेटे की थी| ताई कहां गायब हो गई? कोलकाता नहीं पहुंची तो फिर कहां गई होगी? उसने सब जगह पता लगाने की बहुत कोशिश की लेकिन उनका कुछ भी सुराग ना मिला| अंत में निराश होकर परिवार के सदस्य एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हुए थक हार कर बैठ गए और अपने मन को तसल्ली देते रहे कि उनकी उम्र तो हो ही गई थी, चलो मान लेते हैं कि ताई अब इस दुनिया में नहीं रही| समय के साथ तो बड़े-बड़े घाव भी भर जाते हैं, फिर यह तो कोई घाव ही नहीं था | यह तो अनकही मन की मुराद थी, जो बिना कहे पूरी हो गई थी | लेकिन बेटा होने के नाते समाज को अपना दुख तो बताना ही था | इस घटना के 10 वर्ष बीत गए, अब इतिहास की पुनरावृति का समय आ चुका था |  पोते की भी अपनी गृहस्थी जम चुकी थी| और ताई के बेटे बहू पुराने कैलेंडर जैसी स्थितियों में आ चुके थे | एक बार ताई के पोते ने अपने मां-बाप से कहा, चलिए आप दोनों को कोलकाता घुमा कर लाता हूं, मां बाप बड़े खुश कि बेटा उन्हें कोलकाता घुमाने ले जाएगा, दोनों पति-पत्नी ने मिलकर पूरी लिस्ट बना डाली, कि कोलकाता में कौन-कौन सी घूमने की जगह है, वहां की कौन-कौन सी मिठाइयां प्रसिद्ध है ,कपड़े कहां से और किस तरह के अच्छे और सस्ते खरीदेंगे| और वह दिन भी आ गया जब बेटा अपने मां बाप को लेकर कोलकाता पहुंच गया | कोलकाता पहुंचकर वे सीधे गंगा किनारे पर बसे एक आश्रम में पहुंचे, जिस का संचालन  ओजस्वी व्यक्तित्व वाली महिला करती थी, जिनके दर्शन के लिए लोग घंटों पंक्तिबध्द होकर प्रतीक्षा करते थे | मां बाप ने अपने बेटे से पूछा कि- सबसे पहले यहां क्यों ले आए? बड़ी भीड़ है पहले शहर घूम लेते हैं फिर यहां भी दर्शन कर लेंगे| इस पर बेटे ने जवाब दिया कि- मैंने आप दोनों के जीवनभर  के रहने का इंतजाम इसी आश्रम में कर दिया है| यहां आप दोनों के रहने-खाने और दवाइयों के लिए जितनी फीस भरनी थी, वह मैंने भर दी है, अब मैं वापस जा रहा हूं, आप लोग यहां आराम से रहिए और मुझे भी जिंदगी मेरे हिसाब से जीने दीजिए| मां-बाप अवाक् होकर अपने बेटे का मुंह देखते रहे और वह मुड़कर चला गया | अब तक उनका नंबर भी आ चुका था, उस दिव्य आत्मा से मिलने का | उनके कानों में आवाज आई, घबराइए नहीं, आगे बढ़िए, जीवन यहां भी है| आवाज पहचानी सी लगी, मुड़कर देखा तो ताई सामने खड़ी थी, अपनी अलौकिक मुस्कान के साथ | पति पत्नी  एक पल के लिए तो सकते में आ गए, लेकिन जब वास्तविकता का भान हुआ, तो आंखों से  अश्रुधारा बह निकली | ताई ने उन्हें इशारा किया कि वह सामने के कक्ष में जाकर प्रतीक्षा करें, थोड़ी देर में उनसे मिलने आएंगी | दोनों अपराधी की भांति चुपचाप जाकर बताए गए कक्ष में बैठकर ताई की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे | प्रतीक्षा खत्म हुई, ताई कक्ष में आ चुकी थी | बेटे ने बोलना शुरू किया, आप कहां चली गई थी? हमने आपको कितना ढूंढा, इतने परेशान रहे, बिना कुछ बताए इस तरह से कोई जाता है क्या? ताई धैर्यपूर्वक उनकी बातें सुनने के बाद बोली- मेरे बच्चों मुझे तुम लोगों से कोई शिकायत नहीं है, मुझे जीवन में सही निर्णय लेने में थोड़ा समय अवश्य लगा, लेकिन जब निर्णय ले लिया, तब जीवन का सही अर्थ समझ में आ गया | मुझे तो एक छोटी सी घटना ने जीवन का अर्थ समझाया था, तुम्हें तुम्हारे बेटे ने यह समझाने के लिए यहां भेज दिया | अब मेरी शरण में आ ही गए हो, तो यहां आराम से रहो, जो काम दिया जाए उसे परिश्रम से पूर्ण करो, तथा सेवा के बदले जीवन में शांति पाओ | यही जीवन का मूल मंत्र है | मोह-माया जीवन के बंधन और दुख का कारण है | यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए ,उतनी जल्दी शांतिपूर्ण और सार्थक जीवन को जी पाओगे | ऐसा कहकर ताई कक्ष से बाहर निकल गई, दोनों पति-पत्नी ने खिड़की के बाहर देखा, तो क्षितिज पर सूर्य डूब रहा था, ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो धरती और आसमान मिल रहे हो, फिर बिछड़ने के लिए, तथा दुनिया के लोगों को यह संदेश देने के लिए  कि इस भौतिक जगत में , कुछ भी हमेशा के लिए नहीं है, रिश्ते भी नहीं |

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय