साझेदारी

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मेरे बाबा, जिनके गुस्से से घर में मेरी मां और सारे भाई बहन डरते थे । वो जब किसी बात पर नाराज होते थे, तो किसी की हिम्मत नहीं होती थी , कि उन्हें भोजन कक्ष में बुलाकर ले आए। मैं घर में सबसे छोटी थी, शायद सबसे निर्भीक भी ,इसलिए जब बाबा गुस्से में होते ,तो उनको भोजन के लिए बुलाने, मैं ही जाती थी ।जब बाबा मुझे जोर से डांटते , कि उन्हें भूख नहीं है, तो मैं भी उतनी ही जोर से बोलती, “तो ठीक है ,मैं भी खाना नहीं खाऊंगी, जब तक आप नहीं खा लेते । “मेरे इस ब्रह्मास्त्र के आगे बाबा आत्मसमर्पण कर देते थे। और चुपचाप बिना गुस्सा किये खाना खा लेते थे। फिर तो मैं चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए, भाई बहनों के समक्ष खिलखिलाती हुई ,जाकर बताती थी ,कि मैंने बाबा के गुस्से पर फतेह हासिल कर ली है । घर के सारे लोग पूछते रह जाते, कि कैसे किया यह सब ?बाबा ने डांटा नही, लेकिन मैं किसी को भी अपने ब्रह्मास्त्र के बारे में नहीं बताती थी ।मेरे और बाबा के बीच ऐसी रहस्य भरी साझेदारी और भी थी ।जिसका पता सिर्फ मां को होता था। जब किसी बात पर गुस्सा होकर ,मैं भी खाना पीना छोड़ देती थी, तो बाबा धीरे से आकर ₹100 का बड़ा सा नोट छुपा कर दे देते थे ,और बोलते थे किसी को मत बताना। सिर्फ तुम्हें दिया है ,और मैं अपना गुस्सा भूल कर झटपट खाना खा लेती थी ।लेकिन शाम होते-होते पूरे घर में यह बात आग की तरह फैल जाती थी, कि बाबा ने अपनी लाडली बिटिया को ₹100 दिए हैं ।और मैं ₹100 पाकर स्वयं को दुनिया की सबसे अमीर शहजादी समझने लगती थी। मेरी और बाबा की बहस भी खूब होती थी, लेकिन जीत हमेशा बाबा की होती थी ।क्योंकि आखिरकार थे ,तो वह हमारे पिता श्री ही ।लेकिन पता नहीं क्यों ,जीत कर बाबा कभी खुश नहीं होते थे ।कभी बहस में हार जाते तो ज्यादा खुश हो जाते थे। इस रहस्य को कई सालों बाद, महसूस करने पर मैंने उनसे हार मानना छोड़ दिया था ।क्योंकि मेरा मकसद ही बाबा को हर समय खुश रखने का ही होता था। एक और घटना मेरी स्मृतियों में सदैव दस्तक देती है ,वह यह कि मेरी शादी के बाद ,जब पहली बार मैं मायके आई ,तो मेरी मां ने मुझे बताया ,कि बाबा मां से कह रहे थे ,कि देखो ना, भगवान ने लड़कियों को कैसा वरदान देकर भेजा है ,इस दुनिया में ,कि शादी के बाद वो इतनी जल्दी मायके को भूल जाती है ।यह वरदान मां-बाप को नहीं मिला ना । मैंने रुँधे गले से पूछा ,कि मां बाबा ने ऐसा क्यों कहा? तो मां ने बताया, कि मेरी विदाई के बाद बाबा ने दो दिनों तक भोजन नहीं किया था।ये कहते थे, कि बिटिया की कुशलक्षेम की खबर आ जाए, तो गले के नीचे भोजन का ग्रास उतरेगा ।यह सुनकर मैं अपराध बोध से भर उठी थी, कि यहां बाबा ने मेरे कुशलक्षेम के इंतजार में खाना नहीं खाया और मैं ससुराल की व्यस्तताओं में उन्हें ही भुला बैठी थी।
ईश्वर ने इस दुनिया में कितने ही प्यारे रिश्ते बनाए हैं ,जिनमें एक अनमोल रिश्ता पिता पुत्री की स्नेहपूर्ण साझेदारी का भी होता है, जो अन्य सभी रिश्तों से अलग अनोखा और माधुर्ययुक्त होता है तथा स्मृतियों में सदैव जीवन्त भी।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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