बादल

in poems

बादलों के झुँड से,

था झाँकता,

नन्हा सा बादल,

हँस के कहता है धरा से,

फिर बरसूंगा सुबह से,

पूर्ण कर जलकुम्भ सारे,

ज्यादा बरसूं सह नही पाती,

कम बरसूं तो रह नही पाती,

तेरे प्यारे सो रहे है,

आलस में ही खो रहे है,

उन्हें जगा और फिर करा तू,

जलप्रबन्ध दुरुस्त सारे,

जब कर्म समय पर किया नही,

तब दोष मुझे क्यों देती है,

अतिवृष्टि और अनावृष्टि के,

अनुत्तरित है प्रश्न सारे।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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