बीता ज़माना

in poems

लड़ना झगड़ना या रूठना मनाना ,
कोई डाँट खाए, तो उसको चिढ़ाना,
बहुत याद आता है बीता ज़माना,
वो हँसना हँसाना, वो रोना रुलाना ।
गुज़रता गया, जो पंख लगा के,
पलट के न आया, कभी याद आके।
बहनों के संग, जो बचपन बिताया,
जवानी बितायी ,ज़माना बिताया,
बहुत कुछ छिपाया, बहुत कुछ बताया ,
वो बीता ज़माना बहुत याद आया ।
याद आया कि बारिश में भींगे बहुत थे,
टूटी खटिया पे झूला भी झूले बहुत थे,
कच्ची अमिया छिपा करके खाना खिलाना,
बहुत याद आता है बीता ज़माना ।
कोई रोए,उसको मनाते बहुत थे,
यदि मान जाए,चिढ़ाते बहुत थे,
वो पल पल चिढ़ाना,वो पल पल हँसाना,
बहुत याद आता है बीता ज़माना ।
उन यादों की गठरी से क्या-क्या निकालूँ?
कुछ आँसू ,ठहाके या ख़ुशियाँ निकालूँ?
उन्हें टाँक लूँ,अपनी चादर में लेकर,
नींद आए तो सोऊँ,उन यादों को लेकर।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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