जिज्जी
A stort about society marriage system
A stort about society marriage system
मेरे बाबा, जिनके गुस्से से घर में मेरी मां और सारे भाई बहन डरते थे । वो जब किसी बात
मिस्टर बागची रोज़ की तरह भ्रमण के लिए निकले, तो एक छोटा मरियल सा पिल्ला उनके पीछे-पीछे चलता हुआ न
फुर्सत के लिए फुर्सत, तो निकालो यारों! जब वक्त निकल जाएगा, तो खाक मिलेंगे।। हम वैसे तो दुनिया के रवायत
लड़ना झगड़ना या रूठना मनाना , कोई डाँट खाए, तो उसको चिढ़ाना, बहुत याद आता है बीता ज़माना, वो हँसना हँसाना, वो रोना रुलाना । गुज़रता गया, जो पंख लगा के, पलट के न आया, कभी याद आके। बहनों के संग, जो बचपन बिताया, जवानी बितायी ,ज़माना बिताया, बहुत कुछ छिपाया, बहुत कुछ बताया ,…
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
A stort about society marriage system
मेरे घर के कोने में रखा हुआ ,धूल-धूसरित सा एक मिट्टी का पात्र ,जिसे मैं अलाव के नाम से जानती थी। अचानक मुझसे बातें करने लगा ,कहने लगा, कि तुम्हें याद है ?वो जाड़े के दिन ,जब तुम अपने खूब सारे भाई बहनों और माता पिता के साथ मेरे इर्द-गिर्द बैठकर घंटों मेरे साथ अपनत्व…
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लड़ना झगड़ना या रूठना मनाना , कोई डाँट खाए, तो उसको चिढ़ाना, बहुत याद आता है बीता ज़माना, वो हँसना
घनघोर अमावस में आस की, अंतिम किरण अवशेष हैं, डूबती ही जा रही, मानवता, आकंठ भ्रष्टाचार में, फिर भी जीवन के तट पर, ‘उम्मीद का नाविक’ अकेला शेष है।
उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों
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फुर्सत के लिए फुर्सत, तो निकालो यारों! जब वक्त निकल जाएगा, तो खाक मिलेंगे।। हम वैसे तो दुनिया के रवायत
याद आती हैं, बीती बातें, खट्टी मीठी कड़वी यादें, जीवन में आगे बढ़ते भी, छूट कहां पाती हैं यादें। प्रासंगिक होता जाता है, अनुभव के दरिया में उतरना, सार रहित होता जाता है, चकाचौंध के बीच गुजरना। जीवन के हर पल में कुछ तो, मर्म छुपा होता है,इन्हें समझना, आगे बढ़ना, व्यर्थ कहां होता है?…
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों
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ख्वाबों की टोकरी, ख्वाहिशों का बोझ, जीवन की डोर से ,बंधा इनका छोर। श्वांसे हैं गिनती की,जाना है दूर, अधूरी सी ख्वाहिश से, इंसां मजबूर। कर्मों की टोकरी ही, जाएगी साथ, बाकी रह जाएगा, धरती के पास। छोड़ो इन ख्वाबों और ख्वाहिशों का बोझ, चलो, जिएं ऐसे जैसे, ज़न्नत-ए-एहसास तब सुखद हो जाएगा, धरती पे…
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
मेरे बाबा, जिनके गुस्से से घर में मेरी मां और सारे भाई बहन डरते थे । वो जब किसी बात
मैं उड़ूंगी, गिरूंगी, संभलूंगी, उठूंगी, लेकिन तुम मुझे मत बताओ , कि मुझे कैसे चलना है? मैं हॅंसूगी, खिलखिलाऊॅंगी, रोऊॅंगी, चिल्लाऊॅंगी, लेकिन तुम मुझे मत बताओ , कि मुझे कैसे बात करनी है? तुम भी तो ज़ोर से बोलते हो, ज़ोर से हंसते हो,ज़ोर से चिल्लाते हो, ज़ोर से चलते हो, जब मैंने तुम्हें नहीं…
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फुर्सत के लिए फुर्सत, तो निकालो यारों! जब वक्त निकल जाएगा, तो खाक मिलेंगे।। हम वैसे तो दुनिया के रवायत
सर्द सर्द रातों में, दर्द भरी यादों की , महफिलें जब सजती हैं , ओस बिखर जाते हैं , आसमां
रक्तिम है कुरुक्षेत्र की माटी , चीख रही है अब भी घाटी, कर्तव्यों से आंख मूंदकर, बन जाना गांधारी , ऐसी थी क्या लाचारी ? लालच के दावानल, जब अपनों को झुलसाएंगे , कलयुग की इस विडंबना में, कृष्ण कहां से आएंगे ? सिंहासन पर यदि विराजित, धृतराष्ट्र हो जाएंगे , प्रतिभाओं के चीरहरण पर…
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
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तुम्हारे दर्द को पी लूं , उन्हे कुछ राहतें दे दूं। मैं किस्सा ए कहर लिखूं , या तेरा सबर लिखूं। भिगोया है, कलम को मैंने, ज़ज़्बातो की स्याही से , सच्चाई दर-बदर कर दूं? या फिर मौन अनवरत रखूं।
मैं हिंदी भाषा हूं ,आजकल कुछ उदास सी रहती हूं, क्योंकि मेरे अपनों ने मेरी परवाह करना छोड़ दिया है।
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
मेरे बाबा, जिनके गुस्से से घर में मेरी मां और सारे भाई बहन डरते थे । वो जब किसी बात
सुनंदा बुआ, जिन्हें पूरा मोहल्ला इसी नाम से पुकारता था, यहां तक कि तीन पीढ़ियों तक के लोग यानि कि बाप, बेटे और पोते सभी लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे। किसी के घर की कितनी भी खुफिया जानकारी हो, सुनंदा बुआ के आंख,कान,नाक से छिप नहीं सकती थी। कोई कितना भी अपने घर…
मेरी बगिया का अधखिला गुलाब, नव ऊष्मा से पूरित गुलाब , कुछ मुस्काता सा बोल रहा, अपनी पंखुड़ियां खोल रहा,
उत्तराखंड की यात्रा के दौरान मैं नैनीताल के जिस होटल में रुकी थी ,उस होटल से वापसी वाले दिन सीढ़ियों
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