सौंदर्य का संधान हो तुम,
माधुर्य का आधान हो तुम,
सौम्यता का पर्याय हो तुम,
गाम्भीर्य का अभिप्राय हो तुम,
मेरे अबोध अन्तःस्थल की,
अभिज्ञान हो तुम, विश्रांति हो तुम ।
विडंबना
रक्तिम है कुरुक्षेत्र की माटी , चीख रही है अब भी घाटी, कर्तव्यों से आंख मूंदकर,