सड़क

in poems

खुली सड़क पर घूम रहा था,

वो अनाथ बच्चा,

मै बोली, तुम कुछ पढो,लिखो,

यूं घूमना नहीं अच्छा ।

मै सड़क किनारे पला, बढ़ा,

इस खुली सड़क पर सोता हूं।

भूख से पिचका पेट लिए,

भरने को इसे तरसता हूं।

तुम बड़े लोग का पेट,जेब,

हरदम रहता  है,भरा भरा,

तभी तुम्हे तो दिखता है,

हर तरफ हमेशा हरा हरा।

आओ देखो, इस दुनिया को,

जो सड़क किनारे पलती है,

कुछ इन पर भी उपकार करो,

निर्धनता का उपचार करो,

फिर पढ़ने की तुम बात करो।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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