”रहे ना कोई सपने बाकी,
नाप ले तू अंतरिक्ष की थाती।”
कहते रहते, बाबा मेरे,
जब उनके पास मैं जाती,
उनके ऊंचे सपनों को मैं,
देख-देख घबराती।
आते जाते डांटा करते,
पढ़ती क्यों नहीं दिखती,
जब देखो तब बातों में ही,
समय नष्ट क्यों करती,
जो बातें तब थी चुभती,
आज समझ में आती,
समय की सुई यदि घूम कर ,
फिर वो पल ले आती,
पिता की वैसी डांट के बदले,
धन्यवाद दे पाती।
समय का पहिया आगे बढ़ कर,
कभी लौट न पाया।
समय की गति का मूल्य समझ,
जो सामंजस्य कर पाया,
उसने ही तो, इस जीवन का,
सच्चा मूल्य है पाया।