अमावस की रात

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अमावस का घनघोर अंधेरा और बांसुरी पर  बजती कोई मीठी सी धुन ,ना जाने किस रूह को किसकी तलाश है, किसका दर्द सिसकियां लेता है, रोज रात के सन्नाटे में, यह किस रूह की तड़प बांसुरी की धुन में सुनाई देती है, यहां के लोगों से सुना है, कि किसी बांसुरी वादक की रूह यहां आज भी भटकती है, जिसकी बांसुरी की धुन किसी को तड़पकर पुकारती है, मानो अपनी अधूरी ख्वाहिशों को अपने भीतर से निकालकर वादियों में बिखेर देना चाहता है। ऐसी करुण रस में डूबी स्वर लहरियों से खिचकर ना जाने किस का बहकता हुआ साया दुनिया से बेखबर इस धुन में अपने अस्तित्व को घोल देना चाहता है।

कहानी शुरू होती है एक उच्च कुलीन कान्यकुब्ज ब्राम्हण परिवार की एक भोली भाली षोडश वर्षीय लड़की रमिया से, जिसे बांसुरी की धुन ने अपने मोहपाश में जकड़ लिया था। उसकी बड़ी सी हवेली नुमा घर के पीछे एक बड़ा सा नीम का घना पेड़, जिसके नीचे रोज़ रात को जब अंधेरा घना होता, तो वहीं बैठकर , ‘ जॉन ‘ जो उसके घर से थोड़ी ही दूर पर एक साधारण से घर का संगीत प्रेमी युवा था, बांसुरी पर सुरीली धुन बिखेरता था। रमिया भी रात का भोजन जैसे तैसे निपटा कर बस छत पर पहुंच जाती और बांसुरी की धुन की मिठास में सुध बुध खो देती थी ।लेकिन यह सिलसिला कोई और आकार लेता या आगे बढ़ता, इसके पहले ही घर के मुखिया, जो कि राजनीति में भी अपनी अच्छी पकड़ रखते थे, और जो कि रमिया के पिता थे, उन्हें इसकी भनक लग गई, तो उन्हें यह बात नागवार लगी। एक अदनी सी लड़की क्या अपनी हरकतों से उनकी प्रतिष्ठा को धूल धूसरित  कर देगी। दिमाग की हलचल ने उनके हृदय के द्वार को बंद कर दिया।

उन्हें लगा कि किसी के दिल दिमाग पर तो ताले नहीं डाल सकते, इसलिए परिस्थितियों के जड़ पर ही वार करने की ठान ली। जिस घर में लड़कियों के जीवन के हर फैसले उस घर के मर्द लेते हो, जिस घर में लड़कियों के परिधान से लेकर हंसने तक की सीमाएं घर के मर्द निर्धारित करते हो, एक अलिखित कानून, परंपरा के नाम पर जिस घर में सिर्फ लड़कियों पर थोप दिया जाता हो, ऐसे घर की लड़की रमिया की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि वह रात के अंधेरे में अपने ही छत पर जाकर थोड़ी दूर से आ रही बांसुरी की मीठी धुन में अपनी आत्मा के संगीत की ध्वनि का आनंद ले सके। क्योंकि आनंद और शांति की तलाश भी तो केवल पुरुषों के आधिपत्य का क्षेत्र है।

इतिहास भी तो हमें यही सिखाता है, सोई हुई पत्नी और अपने अबोध शिशु को छोड़ कर चुपचाप चले जाने वाले बुद्ध बन सकते हैं। लेकिन ऐसी ही मनोदशा में चुपचाप पति और अबोध शिशु को त्यागकर पत्नी चली जाए, तो अनंत काल तक उस स्त्री को लांछित करने का कार्य इतिहासकार करते रहेंगे, यह भी अटल सत्य ही है।

ईसाई परिवार में जन्मे जॉन ने अपनी मीठी बांसुरी की धुन में रमिया की आत्मा को बंदी बना लिया था, उसके परिवार में तो नवीनता  स्वीकार्य थी, लेकिन रमिया के घर के बड़े-बड़े दरवाजों खिड़कियों पर पुरानी परंपराओं के मोटे परदे लगे हुए थे, जहां पर इच्छाओं की अभिव्यक्ति का निषेध मुख्य रूप से महिला सदस्यों के लिए था।

यह वह अमावस की अंधेरी रात थी, जब घर के पीछे लगे विशाल नीम के पेड़ तले बैठकर बांसुरी पर करुण रस के गीत बजाता जॉन, आंखें मूंदे स्वर लहरियों के दिव्य लोक में विचरण कर रहा था, और अपनी कल्पनाओं में रमिया के साथ बादलों पर उड़ान भर रहा था। तभी एक बंदूक की गोली उसके सीने के पार निकल गई, निशाना इतना साध कर लगाया गया था, कि उसे अगली श्वास लेने का अवसर भी ना मिला। अपने घर के छत पर बैठकर बांसुरी की धुन सुनती रमिया ने गोली चलने की आवाज सुनी, तो अपनी जिंदगी में पहली और आखरी बार चीखी। इसके बाद दहशत और अपराध बोध से ग्रस्त रमिया की आवाज फिर कभी किसी ने नहीं सुनी।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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