पुण्यात्मा

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प्राचीन काल में जिन्हे ज्ञान की पिपासा होती थी ,वो कंद मूल फल खाकर सात्विक जीवन जीते थे , उनका काम ज्ञान वर्धन और अर्जन कर समाज को सही दिशा दिखाना था ।दूसरा वर्ग वो था ,जिन्हें युद्ध के लिए शारीरिक बल की आवश्यकता थी ,उनका भोजन दूध दही मांसाहार समेत सभी तरह का स्वादिष्ट व्यंजन होता था ।तीसरा वर्ग वो था ,जो धन कमाकर ही संतुष्ट और प्रसन्न रहता था ,वो स्वाद के लिए भोजन करता था ,सेहत औरबल की उन्हें कोई चिंता न होती थी ।चौथा वर्ग वो था ,जो सबकी सेवा कर के ,बदले में मिले हुए,अनाज से अपना घर परिवार और जीवन चलाता था ।बासदेव इसी चौथे वर्ग का एक सीधा सरल स्वभाव का एक ग्रामीण था ,जो अपनी मेहनत ,ईमानदारी और सेवाभाव के कारण पंडितजी के घर का परमप्रिय सेवक था ।पंडिताइन और उनके आधा दर्जन बच्चों का काम तो बासदेव के बिना एक मिनट न चलता था ,लेकिन पंडित जी न जाने क्यूँ बात बेबात बासदेव को कड़ी डांट लगाते रहते थे ।बासदेव सिर झुका कर सारी डांट सुन लेता लेकिन कभी भूले से भी पलटकर जवाब न देता था ।पंडिताइन कभी कभी पंडितजी को समझाने का प्रयत्न भी करती थी ,कि नाहक़ ही बेचारे निरीह प्राणी को क्यों बुरा भला कहते रहते हैं ।अपना काम करता है ,रोटी खाता है और कोने में पड़ा रहता है ।दो मीठे बोल बोलने में आपका तो कुछ ना घटेगा ,उस बेचारे को थोड़ी प्रसन्नता अवश्य मिल जाएगी ।हालाँकि पंडित जी भलमानस व्यक्ति थे ,थोड़े क्रोधी अवश्य थे, लेकिन दया भाव की उनमें कोई भी कमी न थी ।लेकिन पता नहीं क्यों वो बासदेव के सामने अपनी उदार छवि नहीं दिखाते थे ।
माघ का महीना चल रहा था ,एक दिन बासदेव ,पंडिताइन के पास आकर बड़े ही आग्रहपूर्ण स्वर में बोला ,मालकिन मैं माघी स्नान के लिए बनारस जाना चाहता हूँ ,एक माह तक न आ पाऊंगा ,तब तक के लिए आप किसी और को अपनी सेवा में रख लें ,तो बड़ी मेहरबानी होगी लौटकर आऊँगा तो फिर से आपकी सेवा को अपना सौभाग्य समझूंगा ।पंडिताइन ने कहा ,बड़ा आया तू धरम करम करने वाला गंगा स्नान एक दो दिन करके वापस आ जाना ,कौन सा तू पंडित है ,जो…….. इतना कहकर पंडिताइन चुप हो गई ।लेकिन बासुदेव अपनी जिद पर अड़ा रहा ।पंडितजी ने सुना तो बोले कि ,जानें दो ।कभी अवकाश नही लेता अबकी बार उसके मन की इच्छा भी पूरी कर लेने दो। पंडिताइन पंडितजी की बातें सुनकर मुस्कुराई और बोली ,लो भाई अब तो मालिक ने भी आज्ञा दे दी।चलो ठीक है,तुम भी थोड़ा पुण्य कमा लो।
ये थोड़े पैसे रख लो ,यात्रा और माघस्नान में काम आएंगे ।लेकिन एक महीने से ज़्यादा समय नहीं लगाना ,पता है ना इस घर के बच्चों का काम तुम्हारे बिना नहीं चलता है ,वे भी तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा करेंगे ।बासदेव प्रसन्नता आँखों में समेटे माघी स्नान के लिए घर से निकल पड़ा ।गंगा के किनारे पर ही एक छोटी कुटिया बनाकर वही डेरा जमा लिया ।रोज़ सुबह सूर्योदय के पहले स्नान करता और दिन में सत्तू खाकर अपनी पेट पूजा किया करता था ।माघी पूर्णिमा के दिन जब वो गंगा जी में डुबकी लगा रहा था ।तभी उसने देखा कि एक किशोर वय का लड़का डूब रहा है ,बासुदेव एक अच्छा तैराक भी था ,उसने बिना देर किए उसे बचाने के लिए छलांग लगा दी ,काफ़ी जद्दोजहद के बाद उस लड़के को तो बासदेव ने बचा लिया ,लेकिन स्वयं को हृदयघात से न बचा सका। ऊपर से इतना बलिष्ठ दिखने वाले बासदेव का हृदय इतना कमज़ोर होगा ऐसी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी ।पंडित जी ने जब यह दुखद समाचार सुना तो अनायास ही उनके मुख से ये बोल फूट पड़े ,कि कोई पुण्यात्मा ही था,जो जाते जाते भी किसी घर के चिराग़ को समय से पहले बुझने से बचा लिया ,अपनी जीवन ज्योति उसको देकर।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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