है फिक्र उन्हे मेरी कितनी,
ये मुझको भी मालूम नही,
लोगों से कहते फिरते हैं,
क्या कहते हैं, मालूम नही|
है जेब गरम उनकी कितनी,
ये बतलाना होता है,
मेरी जेबों के छेदों को,
गिनकर जतलाना होता है|
पैसों की गर्मी अहंकारवश,
कब शोला बन जाती है!
रावण की सोने की लंका,
कब मिट्टी में मिल जाती है!
ये उनको भी मालूम नही,
ये हमको भी मालूम नही|