सुनंदा बुआ

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सुनंदा बुआ, जिन्हें पूरा मोहल्ला इसी नाम से पुकारता था,

यहां तक कि तीन पीढ़ियों तक के लोग यानि कि बाप, बेटे और  पोते सभी लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे।

किसी के घर की कितनी भी खुफिया जानकारी हो, सुनंदा बुआ के आंख,कान,नाक से छिप नहीं सकती थी। कोई कितना भी अपने घर का राज छुपाना चाहे, लेकिन सुनंदा बुआ को उस बात की गन्ध न मिले, ये तो मुमकिन ही नही था। किसी के घर में थोड़ी भी लड़ाई हो, तो उस लड़ाई को महाभारत में तब्दील कराना सुनंदा बुआ के बाएं हाथ का खेल था। लड़ाई की 🔥 आग में घी कहां से और कैसे डालना है, ये गुण न जाने कौन से महाविद्यालय से सीखकर आई थी। इस सब के बावजूद उनकी लोकप्रियता में मुझे कोई कमी कभी भी नजर नहीं आई। क्योंकि लोगों को जो निन्दा रस सर्वाधिक प्रिय था,वो सुनंदा बुआ के पास पर्याप्त मात्रा में होता था। घर में रहने वाली उस मोहल्ले की महिलाओं का यह प्रिय शगल था। हर घर में दोपहर का समय जब बच्चे विद्यालय और मर्द लोग नौकरी पर चले जाते, तब खूब इत्मीनान से सुनंदा बुआ मुंह में पान का बीड़ा दबाए,बारी बारी से मोहल्ले के हर घर मे आधा , एक घंटा तो जरूर बिताती और जिस घर में बैठती, उस घर के सदस्यों को छोड़कर बाकी सभी घरों के भेद नमक मिर्ची लगा कर सुनाया करती तथा घर में फुर्सत से बैठी महिलाएं उस निंदा रस का भरपूर आनंद लेती रहती थी। फिर यही कार्यक्रम अगले घर में दोहराया जाता था। lलोग उनके दिलचस्प किस्से सुनने के लिए चाय नाश्ते में कमी कभी नहीं होने देते थे। सुनंदा बुआ मन ही मन खुश होती, लेकिन ऊपर से यही जताती, कि उनका तो बिल्कुल भी मन नहीं है, चाय नाश्ते का, लेकिन मेजबान के प्रेम और आदर से परोसे गए जलपान की अनदेखी भी नहीं कर सकती। सुनंदा बुआ का स्वभाव सभी लोग भली-भांति जानते थे, की लोगों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काना उनका प्रिय शगल है, फिर भी कभी किसी ने उन्हें इस आदत के लिए नहीं टोका। बल्कि निंदा रस का आनंद लेते रहे।

एक दिन मैंने सोचा, की पूरे मोहल्ले में हर घर में कमियां गिनाने वाली सुनंदा बुआ के घर जाकर देखूं, की इनके परिवार में ऐसे कौन से गुण हैं, जो यह अपने घर का बखान करती नहीं अघाती और बाकी पूरे मोहल्ले के लोगों के बारे में उल जलूल बातें करती रहती हैं। और मैं सुनंदा बुआ के अभियान पर निकलने के पहले उनके घर के दरवाजे पर पहुंच कर दस्तक देने ही वाली थी, तभी उनकी बेटी, जो कि शादी शुदा होने के बावजूद भी काफ़ी समय से ससुराल नहीं जा रही थी। उसकी चीखती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी।तो मैं वहीं ठिठक कर खड़ी हो गई। सुनंदा बुआ की बेटी सुप्रिया ज़ोर ज़ोर से बोले जा रही थी। कि मैं मर मर कमाती हूं, और तू अपने पान की शौक में उन्हें उड़ाती रहती है,दिन भर घर घर घूमने से फुर्सत मिले तब तो अपने घर पर ध्यान देगी। तेरे ऐसे लक्षणों ने मेरा घर भी तोड़ दिया। तेरे जैसी मां दुश्मन को भी ना मिले। ऐसा कहकर उसने बाहर जाने के लिए झटके से दरवाजा खोला, तो मुझे सामने देखकर सकपका गई। मैंने अपने चेहरे पर बनावटी मुस्कान ओढा और ऐसा प्रदर्शित किया कि जैसे कुछ सुना ही ना हो। लेकिन उस का रुआंसा चेहरा देखकर मैंने झिझकते  हुए पूछ ही लिया । क्या हुआ सुप्रिया, तुम बहुत गुस्से में लग रही हो। थोड़ी सी सहानुभूति पाकर सुप्रिया रोने लगी, और बोली, मेरी मां की आदतों के कारण मुझे ससुराल में भी ताने सुनने पड़ते हैं। इसलिए मैं ससुराल नहीं जा रही, लेकिन मेरी मां अपनी आदतें नहीं छोड़ रही। मेरी ननद की शादी आपके मोहल्ले में हुई है, वहां जाकर भी यह नई बहू के खिलाफ जहर उगल आई, जो मेरी ननद है। मेरे ससुराल वालों को जब यह बात पता चली, तब से उन लोगों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है। अब आप ही बताइए क्या मैं इनकी आरती उतारू? पीछे खड़ी सुनंदा बुआ सिर झुकाए चुपचाप सारी बातें सुन रही थी। और अपराध बोध के कारण नजरें नहीं उठा पा रही थी। मैं उनके पास गई, और उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा,की बुआ यदि सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते हैं। यह सुनते ही बुआ की आंख से दो बूंद आंसू मेरी हथेलियों पर टपक गए। सुनंदा बुआ की आंखों से टपके आंसुओं ने मुझे पूरा जीवन दर्शन समझा दिया।कि ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए।’

 

 

 

 

 

 

 

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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