अंधकार से प्रकाश की ओर

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संस्कृत भाषा में एक कहानी है, “तत् त्वम् असि” जिसमें ऋषि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु का अहंकार दूर करने के लिए उसे बरगद के बीज का दृष्टांत दिखाकर समझाते हैं, कि ‘एक बीज में विकास की अनंत संभावनाएं होती हैं, जो अनुकूल मिट्टी पानी और धूप पाकर विशाल वृक्ष का रूप ले लेती है।

बीज भूमि के अंधेरे में सर्दी-गर्मी सहकर प्रतीक्षा करते हैं,तब जाकर उन्हें प्रकाश पाने का अवसर मिलता है। इस उपलब्धि पर नवजात पौधों पर मानो मंगल संगीत छा जाता है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” अंधेरे से प्रकाश पाने की आकांक्षा किसमें नहीं है? प्रत्येक प्राणी में ऐसे बीज छिपे हैं, जो प्रकाश पाना चाहते हैं, इन बीजों से ही पूर्ण होने की प्यास उठती है। प्रत्येक के भीतर छिपी है यह लपटे, जो सूरज को पाना चाहती हैं ।बीजों को पौधों में बदले बिना कोई तृप्त नहीं होता, पूर्ण हुए बिना कोई मार्ग नहीं, पूर्ण होना ही होता है, क्योंकि मूलतः प्रत्येक बीज पूर्ण ही है।

इसलिए हे पुत्र, तुम अहंकारी न बनो। क्योंकि अहंकार पूर्णता प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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