पीहर

in poems

सावन की बदरी फिर छाई,
मस्त हवाएं फिर बौराई ,
बूंदें बरसी , सड़कें भींगी,
भींग गई, मन की बगियां,
मां बाबा फिर याद आ गये,
याद आई उनकी बतियां,

हर सावन पर पीहर से,
जब जब आमंत्रण आता था,
मन मयूर तब नाच नाच कर,
अपना जश्र मनाता था ।
मां बाबा के होने से,
सावन- सावन कहलाता था|
पीहर जाने के लिए प्रतीक्षित ,
समय कहां रुक पाता था ।
मां बाबा बिन सूना पीहर,
न आमंत्रण की आस रही,
राखी आए, होली आए,
अब वैसी न बात रही,
चहल पहल और घर की रौनक,
बीते कल की बात रही,
पीहर के उन सुखद पलों की,
अब तो बाकी याद रही।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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