सबकी छत बनाने वाले, महलों को चमकाने वाले,
क्यूं इतने मजबूर हुए है?भूख से थककर चूर हुए हैं।
नींव की ईंटें रोयी थीं,तब। मजदूरों का हाल देख कर।
आसमान बेचैन हुआ था,बचपन को बदहाल देखकर।
न रोटी, न काम रहा जब, रहने को आवास रहा कब?
उनके जलते छालों पर भी, राजनीति के काम हुए हैं।
दर्द उनके बदनाम हुए हैं।
बुनियादें हिल गई देखकर, मजदूरों का हाल,
कोरोना तो हारेगा ही,भूख बनेगा काल।
ये है मज़बूरों का साल।