मज़दूरों का हाल…

in poems

सबकी छत  बनाने वाले, महलों को चमकाने वाले,

क्यूं इतने मजबूर हुए है?भूख से थककर चूर हुए हैं।

नींव की ईंटें रोयी थीं,तब। मजदूरों का हाल देख कर।

आसमान बेचैन हुआ था,बचपन को बदहाल देखकर।

न रोटी, न काम रहा जब, रहने को आवास रहा कब?

उनके जलते छालों पर भी, राजनीति के काम हुए हैं।

दर्द उनके बदनाम हुए हैं।

बुनियादें हिल गई देखकर, मजदूरों का हाल,

कोरोना तो हारेगा ही,भूख बनेगा काल।

ये है मज़बूरों का साल।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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