विद्रोही स्वर

in poems

मैं उड़ूंगी, गिरूंगी, संभलूंगी, उठूंगी,

लेकिन तुम मुझे मत बताओ ,

कि मुझे कैसे चलना है?

मैं हॅंसूगी, खिलखिलाऊॅंगी, रोऊॅंगी, चिल्लाऊॅंगी,

लेकिन तुम मुझे मत बताओ ,

कि मुझे कैसे बात करनी है?

तुम भी तो ज़ोर से बोलते हो,

ज़ोर से हंसते हो,ज़ोर से चिल्लाते हो,

ज़ोर से चलते हो,

जब मैंने तुम्हें नहीं टोका,

किसी बात पर नहीं रोका,

तुम अपने मन की करते हो,

हरदम गुस्से में रहते हो,

तुम्हारे प्यार का दिखावा,

तुम्हारे हॅंसी का छलावा,

मैंने देखा है, भोगा है,

पाया है, धोखा है।

अब मैं अपने इस एक जीवन को,

और बदरंग नहीं कर सकती,

मुझे जीवन में रंग भरना है,

तुम मुझे मत बताओ,

मुझे क्या करना है।

मेरे विद्रोही स्वर ही,

आज से मेरे त्राता हैं,

तुम मुझे मत बताओ ,

मुझे क्या आता है?

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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