दोषी कौन ?

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राघव की उम्र यही कोई 18 वर्ष की रही होगी ,घर में सिर्फ दादी और पोता राघव |आपस में लड़ते झगड़ते, लाड़- दुलार करते ,हंसी-खुशी के पल बिता रहे थे |लेकिन अचानक दादी की तबीयत बिगड़ी और वेैद्य ने उनके अंतिम समय का एलान कर दिया |अब दादी को यह चिंता हो गई कि, राघव के माता-पिता तो पहले ही गुजर चुके हैं ,यदि वह भी ना रही तो राघव को खाना कौन खिलाएगा ?पुराने लोग ,पुराना ख्याल |बस हर मुसीबत का एक ही इलाज ,शादी कर दो और अपनी जिम्मेदारी खत्म |इसके पीछे यह विचार काम करता था कि लड़के के सिर पर जिम्मेदारी पड़ेगी, तो कुछ ना कुछ कमा ही लेगा, नहीं तो निठल्ले बना घूमता रहेगा | बस फिर क्या था ,आनन-फानन में गांव के पंडित को बुलाया गया, तथा उनकी बताई गई कन्या से राघव का विवाह संपन्न हो गया | राघव ने इस विवाह का बहुत विरोध किया, कि उसका खुद का कोई ठिकाना नहीं, उसे बंधन में ना डाला जाए ,लेकिन दादी ने उसकी एक न सुनी | विवाह के एक माह बीतते-बीतते दादी स्वर्ग सिधार गई , घर में बच्चे राघव और उसकी नवविवाहिता पत्नी |

दादी के स्वर्ग सिधारते ही राघव को घर जैसे काटने लगा , विवाह की जिम्मेदारी बोझ जैसी लगने लगी | वह दिन रात इसी उधेड़बुन में लगा रहता, कि क्या करूं ,खुद के काम धाम का तो ठिकाना नहीं , एक बोझ के रूप में पत्नी को और सिर पर लाकर पटक दिया | दादी खुद तो स्वर्ग यात्रा पर निकल लीं और मुझे नर्क में झोंक दिया | इन्हीं विचारों में खोया राघव 1 दिन अंधेरी रात में बिना किसी से कुछ कहे घर से निकल गया, यह सोचे बिना कि उसके पीछे उसकी नवविवाहिता पत्नी का क्या होगा ?उसे स्वयं कहां जाना था ,यह भी नहीं पता था उसे, बस सब कुछ छोड़ कर कहीं दूर जाना चाहता था, स्वयं की तलाश में ,जहां कोई उसे पहचानता ना हो |

दिन महीने साल बीतते रहे ,भटकते -भटकते एक स्थान से दूसरे स्थान रुकता ,कुछ काम करके खाने भरका कमा लेता , फिर चल पड़ता | समय का चक्र घूमता रहा और 1 दिन किसी प्रसिद्ध घराने के संगीत सम्राट की नजर उस पर पड़ी और फिर तो राघव को जैसे उसकी पहचान ही मिल गई, गुरु जी के सानिध्य में रहकर उसने अपनी संगीत साधना आरंभ की और कुछ ही वर्षों में स्वयं को एक संगीतकार के रूप में स्थापित कर लिया | गुरुकृपा के प्रसाद स्वरूप उसने गुरु पुत्री से विवाह कर अपनी पूरी दुनिया ही बसा ली |

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, तभी एक दिन अचानक न जाने क्या हुआ | कि उसे अपनी किशोरावस्था की संगिनी की स्मृति ने विह्वल कर दिया और वह एकदम से ही अपने पैतृक गांव की ओर वापस चल पड़ा | 25 वर्ष के लंबे अंतराल ने पूरे गांव का नक्शा ही बदल दिया था |पूछते पूछते घर तक पहुंचा , तो वहां भीड़ लगी थी |लोगों से पूछा तो पता चला ,कि किसी की ब्याहता पत्नी थी | ना जाने इसने अपने पति से ऐसा क्या कह दिया था ,कि वह इसे विवाह के 1 माह बाद ही छोड़कर चला गया , और फिर वापस ही नहीं लौटा |पूरा जीवन इसने इसी अपराध बोध के साथ गुजारा ,कि न जाने उससे ऐसी क्या भूल हो गई थी, कि पति ने जाने से पहले उसे बताना भी उचित नहीं समझा |ना तो रोती थी, ना हंसती थी ,ना किसी से कुछ बातें ही करती थी ,बस अपने अनजाने पापों के लिए भगवान से क्षमा मांगा करती थी |न जाने इस कलंकिनी ने ऐसा कौन सा जघन्य अपराध किया था , कि शरीर से प्राण भी ना निकलते थे | लेकिन अब देखो, जब प्राण पखेरू उड़ चुके हैं ,तब भी आंखें फाड़े जाने किसकी राह देख रही है | राघव ने गौर से मृत शरीर को देखा, तो सूरत कुछ पहचानी सी लगी ,उसने पास जाकर मृत शरीर की आंखें अपनी हथेलियों से बंद की ,तो उसके हाथ पर गुदा हुआ अपना नाम पढ़ लिया, शोक संतप्त मन से उसने स्वयं को धिक्कारा, कि बिना किसी अपराध के, मेरे कर्मों की सजा़ स्वयं भुगत कर, मृत्यु उपरांत भी दोषी घोषित की जाती हुई ,मेरी अर्धांगिनी मुझे क्षमा करना ,मुझ में इतना साहस नहीं ,कि मैं तुम्हारी   निर्दोषता का प्रमाण इस समाज को दे पाऊं |

तुम्हें तो मुक्ति मिल गई लेकिन तुम्हारे प्रति किए गए मेरे अपराध मुझे मुक्त ना करेंगे | जीते जी इस अपराध बोध के साथ मै तुम्हारे लिए आजीवन प्रायश्चित करता हुआ उम्र -कैदी सा जीवन ही जी पाऊंगा |मुझे मेरे इस जघन्य अपराध के लिए क्षमा करना ,मेरी निर्दोष जीवनसंगिनी | -तुम्हारा राघव

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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