सावन

in poems

मन ने फिर आवाज लगाई,

अब तो रहे न बाबा-आई।

जो कहते सावन में आओ,

भाई को राखी बंधवाओ।

इस आमंत्रण से गर्वित हो,

जब-जब मैं पीहर को जाती,

आंखों में नेह-अश्रु लिए तब,

बाबा-आई को मैं पाती।

न वैसा आमंत्रण है,अब।

न वैसा त्योहार……।

सम्बन्धों के खालीपन से,

अनुगुंजित आवास……।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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