मेरे बाबा

in poems

 

”रहे ना कोई सपने बाकी,

नाप ले तू अंतरिक्ष की थाती।”

कहते रहते, बाबा मेरे,

जब उनके पास मैं जाती,

उनके ऊंचे सपनों को मैं,

देख-देख घबराती।

आते जाते डांटा करते,

पढ़ती क्यों नहीं दिखती,

जब देखो तब बातों में ही,

समय नष्ट क्यों करती,

जो बातें तब थी चुभती,

आज समझ में आती,

समय की सुई यदि घूम कर ,

फिर वो पल ले आती,

पिता की वैसी डांट के बदले,

धन्यवाद दे पाती।

समय का पहिया आगे बढ़ कर,

कभी लौट न पाया।

समय की गति का मूल्य समझ,

जो सामंजस्य कर पाया,

उसने ही तो, इस जीवन का,

सच्चा मूल्य है पाया।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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