क्रोध को जीता नहीं,
और दे दिया अभिशप्त जीवन।
शकुन्तला जब बैठ कुटिया में,
कर रही थी, मधुर चिंतन।
दोष उसका बस यही था,
देख न पाई प्रलय को,
भावना में बह गयी,
पी गयी पीड़ा के गरल को।
निर्दोष शकुन्तला सोच रही,
वो किस समाज का हिस्सा है?
अपने अस्तित्व को खोज रही,
ये हर युग का ही किस्सा है।