अग्निगर्भा द्रौपदी की,
बात है इतनी पुरानी,
मान और अपमान के,
दस्तूर की ये है कहानी।
नारी पर आघात की,
और फिर प्रतिघात की,
रिश्तों में व्यवधान की,
युद्ध के संधान की,
दम्भ था विकराल इतना,
जल गया संसार कितना,
बन गई श्मशान धरती,
रह गयी बस रुदन सिसकी।
वो कैसी भीष्म प्रतिज्ञा थी,
जो पाप देख न थर्राई,
वो कैसी शूर वीरता थी,
जो अंत सभी का ले आयी,
क्यों भाई भाई लड़ मरे,
क्या मिला धृतराष्ट्र को,
पहले लालच में सो न सका,
फिर पछतावे में रो न सका ।
आँसू सूखे,अंगार बने,
जीवन की, क्या दशा बना डाली,
पद धन के लालच में देखो,
अपनों की चिता जला डाली।