महाभारत

in poems

अग्निगर्भा द्रौपदी की,

बात है इतनी पुरानी,

मान और अपमान के,

दस्तूर की ये है कहानी।

नारी पर आघात की,

और फिर प्रतिघात की,

रिश्तों में व्यवधान की,

युद्ध के संधान की,

दम्भ था विकराल इतना,

जल गया संसार कितना,

बन गई श्मशान धरती,

रह गयी बस रुदन सिसकी।

वो कैसी भीष्म प्रतिज्ञा थी,

जो पाप देख न थर्राई,

वो कैसी शूर वीरता थी,

जो अंत सभी का ले आयी,

क्यों भाई भाई लड़ मरे,

क्या मिला धृतराष्ट्र को,

पहले लालच में सो  न सका,

फिर पछतावे में रो न सका ।

आँसू सूखे,अंगार बने,

जीवन की, क्या दशा बना डाली,

पद धन के लालच में देखो,

अपनों की चिता जला डाली।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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