पिता की सीख

in poems

जब जन्म लिया इन्सां बन कर,

इंसानों जैसे जी तो लो,

कुछ दुःख के काँटें कम कर लो,

कुछ सुख के फूल खिला तो लो,

किसका ऐसा जीवन होगा,

जिससे कोई न भूल हुई,

जीवन पथ पर चलते चलते,

पथ में कोई न शूल हुई,

काँटों से ही तो सीखा है,

संभलना और संवर जाना,

नव पुष्पों की प्रतीक्षा में,

थोड़ा सा ठहर जाना।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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