स्व से ऊपर उठो ,
पुकारता ये तंत्र है,
स्व से ऊपर उठो,
जीवन का ये मंत्र है,
अनगिनत पीड़ित यहाँ पर,
अनगिनत शोषित यहाँ पर,
अनगिनत आँखे यहाँ पर,
जोहती है बाट तेरा,
कपकपाते हाथ उठते है ,
इस उम्मीद पे कि,
कोई तो आए जो,कह दे,
टूट मत तू , मैं हूँ तेरा,
जीवन जो बिखरा हुआ है,
इस आस में ठहरा हुआ है,
कि कोई तो होगा, यहाँ जो,
आकर कहे, सहरा हुआ है,
जीवन तो उनका भी है,
जो जीते जी मर जाते है,
जिसने इनके आँसू पोछे,
वे ही मानव कहलाते है ।
आँखों में लिए प्रश्न बैठी ,इन्तज़ार की चौखट पर , वो समय कहाँ, कब आएगा ,जो
पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया।
"कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था।
लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया।
पुनश्च धन्यवाद!☺️
वंदना राय