मन की व्यथा कहो ना भाई ,
दुनिया की परवाह हो करते ,
अपनी क्यूँ नहीं ली दवाई,
मन की व्यथा कहो ना भाई ।
बचपन के वह खेल पुराने ,
जरा चोट को अधिक बताते,
और वीर बन हमें डराते ,
अब क्यों अपने जख्मों को तुम,
आंखों से भी नहीं बताते ,
हंसकर कहते बढ़िया है सब,
जो भोलापन बचपन में था,
वैसे ही फिर क्यों ना बन पाते ।
दर्द सभी के होते अपने,
लेकिन हँस कर सहमे सहमे ,
फिर पथ में आगे बढ़ जाते ,
तुमने अपने जीवन जल को ,
क्यों इतना ठहराव दिया है,
फिर सारी दुनिया के लिए क्यों,
हंस-हंसकर हो कमल खिलाते,
खुद के जख्मों की करो विदाई ,
मन की दवा करो ना भाई ।
तुम्हारी बहन